बनारस का इतिहास !

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यदि इतिहास के पन्नों को देखें तो यह कहा गया है की “बनारस का इतिहास” शायद इतिहास के पन्नो से भी पुराना है। वैसे वर्तमान में इस शहर का अधिकारिक नाम “वाराणसी” है जिसे “बनारस” या “काशी” के नाम से भी जाना जाता है प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन बनारस के बारे में लिखते हैं : “बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।”

ऐसे में भला इस शहर का इतिहास कैसे लिखा जा सकता है, फिर भी उन्ही इतिहास के पन्नों और धर्मग्रंथों के अनुसार आइये हम विश्व के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक तथा भारत का प्राचीनतम शहर एवं भारत की आध्यात्मिक राजधानी कहे जाने वाले शहर “बनारस” के बारे में जानने की कोशिश करते हैं !

बनारस का इतिहास क्या है ?

पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस शहर का मूल नाम “काशी” रहा है जिसकी स्थापना भगवान शिव ने लगभग 5000 वर्ष पूर्व की थी। स्कंद पुराण, रामायण, महाभारत सहित प्राचीनतम वेदों, पुराणों एवं अन्य कई हिन्दू ग्रन्थों में काशी का उल्लेख आता है। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक कहा गया है तथा ये हिन्दुओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है।

ऐसी मान्यता है की जिस व्यक्ति की मृत्यु बनारस की धरती पर होती है, उसे स्वयं बाबा विश्वनाथ मृत्यु के पश्चात तारक मंत्र देकर मुक्ति प्रदान करते हैं और वह जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।

बनारस के अलग अलग नामों का इतिहास !

हरिवंशपुराण के अनुसार मनु से 11 वीं पीढ़ी के भरतवंशी राजा ‘काश’ ने ‘काशी’ को बसाया था तथा उन्ही के नाम पर इस स्थान का नाम काशी पड़ा। वहीँ कुछ विद्वानों के मत में काशी वैदिक काल से भी पूर्व की नगरी है, जिसकी स्थापना स्वयं भगवान शिव ने लगभग 5000 वर्ष पूर्व की थी। चुकी यह स्थान भगवान् शिव की उपासना का प्राचीनतम केंद्र रहा है इस कारन भी इस धारणा का जन्म हुआ जान पड़ता है, क्योंकि सामान्य रूप से शिवोपासना को पूर्ववैदिककालीन माना जाता है। वहीँ विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ में भी ‘काशी’ का उल्लेख मिलता है – ‘काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:’

पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है जो पहले भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी भी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया था, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ, किंतु जैसे ही उन्होंने काशी क्षेत्र की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह सिर भी उनसे अलग हो गया। जिस जगह पर यह घटना घटी थी, वह स्थान “कपालमोचन-तीर्थ” कहलाया। तत्पश्चात महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया था और तब से काशी महादेव का निवास-स्थान बन गई।

वहीँ अन्य मान्यताओं के अनुसार ‘वाराणसी’ नाम का उद्गम यहां की दो स्थानीय नदियों ‘वरुणा’ एवं ‘असि’ के नाम से हुआ है। साथ ही ‘अथर्ववेद’ में ‘वरणावती नदी’ का नाम आता है, बहुत संभव है कि यह नाम वरुणा नदी के लिये ही प्रयोग किया गया हो। इसके अलावा “अस्सी नदी” को पुराणों में असिसंभेद तीर्थ कहा है। स्कंद पुराण के काशी खंड में कहा गया है कि संसार के सभी तीर्थ मिल कर असिसंभेद के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होते हैं। ‘अग्निपुराण’ में असि नदी को व्युत्पन्न कर ‘नासी’ भी कहा गया है। यदि वरणासि का पदच्छेद करें तो ‘नासी’ नाम की नदी इससे निकाली गयी प्रतीत होती है, जो कालांतर में ‘असी’ नाम में बदल गई। महाभारत में वरुणा नदी का प्राचीन नाम वरणासि होने की भी पुष्टि होती है। इसके अलावा पद्म पुराण के काशी महात्म्य के खंड-३ में भी एक श्लोक आता है:

वाराणसीति विख्यातां तन्मान निगदामि
व: दक्षिणोत्तरयोर्नघोर्वरणासिश्च पूर्वत।
जाऋवी पश्चिमेऽत्रापि पाशपाणिर्गणेश्वर:।।

अर्थात दक्षिण-उत्तर में वरुणा और अस्सी नदी है, पूर्व में जाह्नवी और पश्चिम में पाशपाणिगणेश। साथ ही अगर मत्स्य पुराण को देखें तो इस में भी भगवान् शिव वाराणसी का वर्णन करते हुए पार्वती जी से कहते हैं :

वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता।
प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये॥

अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है।

उपरोक्त उदाहरणों से यह प्रतीत होता है कि वास्तव में इस स्थान का पूर्व नाम ‘काशी’ था, जिसका ‘वाराणसी’ नाम से नामकरण ‘वरणासी’ पर बसने से हुआ। बाद में इस “वरणासी नदी” से ही ‘अस्सी’ और ‘वरुणा’ के रूप में दो नदियों के नाम का उद्गम हुआ और इसके फलस्वरूप इन दो नदियों के बीच में ‘वाराणसी’ के बसने की कल्पना की गयी। बाद में लोकोच्चारण से इस शहर का नाम ‘वाराणसी’ से ‘बनारस’ हो गया, जिसे बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् ‘वाराणसी’ ही कर दिया।

इसके अलावा वाराणसी को लंबे काल से अविमुक्त क्षेत्र, आनंद-कानन, महाश्मशान आदि नामों से भी संबोधित किया जाता रहा है। साथ ही लोकाचार की आम भाषा में वाराणसी को ‘भारत की धार्मिक राजधानी’, ‘मंदिरों का शहर’, ‘भगवान शिव की नगरी’ आदि विशेषणों से भी संबोधित किया जाता है।

अलग अलग कालखंडों में बनारस का इतिहास !

अतिप्राचीन काल : इतिहासकारों के अनुसार हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस शहर की नींव डाली थी। उसके बाद यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे लोगों ने उनसे ये शहर नगरी छीन लिया। वे बड़े लड़ाकू थे, साथ ही ना उनके घर-द्वार थे ना ही अचल संपत्ति थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल घराने थे। उस वक़्त उनका एक राजघराना काशी में भी आ जमा। कुछ समय के बाद काशी के पास ही अयोध्या में भी उनका राजकुल बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश। उसके बाद काशी में चन्द्र वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते रहे।

महाभारत काल : महाभारत काल में काशी भारत के समृद्ध जनपदों में से एक थी। महाभारत में वर्णित एक कथा के अनुसार एक स्वयंवर में पाण्डवों और कौरवों के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामस्वरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। कर्ण ने भी दुर्योधन के लिये काशी राजकुमारी का बलपूर्वक अपहरण किया था, जिस कारण काशी नरेश महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की तरफ से लड़े थे। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डवों के वंशज वर्तमान इलाहाबाद जिले में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर वत्स का अधिकार हो गया।

उत्तर वैदिक काल : इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बड़े पंडित शासक हुए। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य जैसे ज्ञानी महर्षि और गार्गी जैसी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थीं। इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ। ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार हो रहे थे। इन विचारों को उपनिषद् कहते हैं। इसी से यह काल भी उपनिषद-काल कहलाता है।

महाजनपद युग : युग बदलने के साथ ही वैशाली और मिथिला के लिच्छवियों में साधु वर्धमान महावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्यों में गौतम बुद्ध हुए। उन्हीं दिनों में काशी के राजा अश्वसेन हुए। इनके यहां पार्श्वनाथ हुए जो जैन धर्म के २३वें तीर्थंकर हुए। उन दिनों में भारत में चार राज्य/जनपद क्रमशः (मगध, कोसल, वत्स और उज्जयिनी) प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने के लिए आपस में बराबर लड़ते रहते थे। फलस्वरूप काशी कभी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले, कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया।

उसी कुल के राजा महाकोशल ने तब अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई। राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया जिसका परिणामस्वरुप मगध और कोसल में युद्ध हुआ। इस काल में काशी कभी कोसल के हाथ लगी तो कभी मगध के। अन्ततः इस युद्ध में अजातशत्रु की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र चली गई और फिर कभी काशी पर उसका आक्रमण नहीं हो पाया।

बौद्धकाल : हालांकि बौद्धकाल से पहले ही काशी एक समृद्ध राज्य बन चूका था लेकिन बौढकाल में वाराणसी को काशी के राजधानी के रूप में बनाया गया। उस वक़्त काशी व्यापारिक दृष्टि से बहुत विकसित थी, यहाँ से तक्षशिला तक सीधा व्यापार होता था एवं यहाँ के बने हुए कपड़े सबसे अच्छे माने जाते थे। इसके अलावा यहाँ हाथी एवं घोड़ों का भी बाजार लगता था। धार्मिक प्रचार प्रसार की दृष्टि से भी इस कालखंड में वाराणसी का अधिक महत्व था।

कुषाण काल : ईशा की प्रथम सदी के उत्तरार्ध में काशी में कुषाण का आधिपत्य स्थापित था, इस दौरान काशी का राजधानी क्षेत्र वाराणसी व्यापारिक दृष्टि से बहुत समृद्ध हुआ। इस काल में बौद्ध धर्म का प्रभाव यहाँ ज्यादा था। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने यहीं पर पंचवर्गीय भिक्षुओं को अपना पहला उपदेश दिया था। उसके बाद इसी काल में सारनाथ में बौद्ध धर्म एवं संघ को स्थापित किया गया तथा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए सारनाथ में बौद्ध केंद्र स्तूप एवं मंदिरों का निर्माण हुआ।

मौर्यकाल : बौद्ध निर्वाण (483 ई0 पूर्व) से लगभग सवा दो सौ साल बाद सम्राट अशोक का कलिंग युद्ध में हुए नर संहार के बाद हुए हृदयपरिवर्तन हुआ और सम्राट अशोक का ध्यान बुद्ध के बताये रास्तों पर गया। बौद्ध धर्म से प्रेरणा लेकर अशोक ने वाराणसी के सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, अशोक स्तंभ और धम्मेख स्तूप का निर्माण करवाया। जिसमे धर्मराजिका स्तूप को काशीराज चेतसिंह के दीवान बाबू जगत सिंह ने बाद में गिरवा कर उसी के मसाले का प्रयोग कर बनारस में जगतगंज मोहल्ला बसाया।

शुंग वंश में काशी : मौर्य काल के अंत के बाद शुंग वंश ने अपनी जड़ें स्थापित कर लिया। वाराणसी के राजघाट के काशी रेलवे स्टेशन को बढ़ाने के लिए खुदाई की गयी। खुदाई में पुरानी वस्तुएं मिट्टी की मुद्राएं मिली थी। जिसे भारत कला भवन और इलाहाबाद म्यूनिसिपल म्यूजियम में सुरक्षित रखा गया है। खुदाई में मिली प्राचीन मुद्राओं पर यूनानी देवी देवताओं की आकृतियां और राजाओं के सिर छपे हुए हैं। इन मुद्राओं से पता चलता है कि वाराणसी और पश्चिम के व्यापारिक सम्बंध रहे हैं।

गुप्त काल : गुप्त काल के दौरान वाराणसी में बौद्ध और शैव धर्म का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा था। इसी समय प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान गंगा के किनारे होता हुआ वह वाराणसी पैदल ही आया था। वाराणसी में वह ऋषिपतन मिगदाय (सारनाथ) भी गया। गायघाट के पास ईसा की पांचवी सदी कार्त्तिकेय की एक बहुत पुरानी मुर्ति मिली थी। जो इस समय बी0एच0यू0 स्थित भारत कला भवन में सुरक्षित है। गुप्त काल में सारनाथ अपने चर्मोत्कर्ष पर रहा। इस दौरान यह स्याल कला का प्रमुख केन्द्र हो गया।

हर्षवर्धन काल : हर्षवर्धन काल में काशी (वाराणसी) काफी आकर्षक जगह थी। यहां की जलवायु बहुत संतुलित थी तथा यहाँ फसलों की पैदावार बहुत अच्छी होती थीं। इस दौरान शहर की आबादी घनी थी तथा यहाँ बौद्ध धर्म के अनुयायी ज्यादा थे। तब वाराणसी में तीस बौद्ध विहार थे। शहर में सौ से ज्यादा मंदिर थे जिनके खंड व छज्जे नक्काशीदार पत्थर व लकड़ी के बने थे। उस वक़्त सारनाथ आठ भागों में विभाजित था जिसके चारो तरफ प्राचीर निर्मित था तथा प्राचीर के भीतर दो सौ ऊँचा चैत्य था। इसके साथ ही बौद्ध विहार के पश्चिम में स्तूप था जिसकी ऊँचाई 300 फीट थी।

गहड़वाल काल : ग्यारहवीं सदी के अंतिम दशक में गहड़वाल वंश शुरू हुआ। इस वंश का संस्थापक चंद्रदेव था। बाद में गाहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र ने उत्तर प्रदेश व बिहार में अपना राज्य स्थापित कर लिया था। इस दौरान उसकी राजधानी कन्नौज के साथ-साथ काशी भी थी। गाहड़वालों के शासन काल के दौरान काशी व्यापार की दृष्टि से बड़ा बाजार थी। इस काल में दूसरे प्रदेशों के पण्डित भी वाराणसी में आकर स्थाई निवास करने लगे थे। साथ ही मोक्ष प्राप्ति की आशा में साधु सन्यासी भी यहां आना शुरू कर दिये थे। इस दौरान काशी विद्या का भी प्रमुख केन्द्र बन गयी। काशी में वेद, पुराण स्मृतियों धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इसी काल में वाराणसी में अनेक तीर्थों की स्थापना हुई तथा काशी देश का प्रमुख तीर्थ क्षेत्र बन गयी। प्राचीन काल में यहाँ प्रमुख रूप से अविमुक्तेश्वर की पूजा होती थी, जिनका नाम बाद में बदलकर विश्वेश्वर कर दिया गया।

मुगलकाल : 1526 में मुगल शासन का उदय हुआ। मुगल वंश की स्थापना बाबर ने की। बाबर ने 1528 व 1529 में अवध को जीता था, इसी युद्ध में वाराणसी पर उसकी नजर गयी। इसके बाद बाबर ने वाराणसी को जीतकर अपने सिपहसालार जलालुद्दीन खां शर्की को सेना के साथ यहाँ रख दिया। इसी क्रम में बाबर के बेटे हुमायु ने चुनार का किला जितने के बाद वाराणसी में अपना डेरा डाला था। उसके बाद करीब 16 वर्षों तक यहाँ शेरशाह सूरी का शासन रहा, तत्पश्चात 1556 में मुग़ल साम्राज्य का शासक अकबर हुआ जो 1565 में बनारस आया। उस समय बनारस में बहुत अशांति फैली थी जिसे अकबर ने सही किया लेकिन अकबर के जाने के बाद स्थिति पूर्ववत हो गयी तब अकबर दुबारा बनारस आया और उसने शहर को लूटने का आदेश दिया।

अकबर के शासन काल में राजा टोडरमल का बनारस से अत्यधिक सम्बन्ध रहा था जिनके सहयोग से 1585 में विश्वनाथ मंदिर का यहाँ निर्माण हुआ। इसके बाद तत्कालीन मुग़ल शासक औरंगजेब ने अपने शासन काल के दौरान हिन्दुओं के आस्था को निशाना बनाना शुरू कर मंदिरों को तोडना शुरू किया, इसी दौरान काशी में भी कई मंदिर तोड़ दिए गए तथा सांस्कृतिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया गया ! इसी क्रम में औरंगजेब ने विश्वनाथ मंदिर को गिराकर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करवाया।

ब्रिटिश काल : कालान्तर में बनारस पर राजा बलवन्त सिंह, चेत सिंह आदि ने अवध के नवाब की कृपा से शासन किया और लगान के रूप में एक निश्चित राशि उन्हें देते रहे। बाद में बक्सर के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत बनारस पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया।

इसके बाद तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हस्टिंग्स ने बनारस के प्रशासन के लिए 12 जून 1775 ई0 को एक विस्तृत योजना बनायी जिसके अनुसार राजा चेत सिंह के द्वारा लगान अब अवध के नबाव के बदले अंग्रेजों को दी जाने लगी। और इस तरह बनारस पूरी तरह कम्पनी शासन के अधीन आ गया। हालांकि अंग्रेजों के शासन काल में भी काशी में अनेक उल्लेखनीय कार्य हुए तथा अनेक शिक्षण संस्थानों की स्थापना हुयी जिसमे सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय का प्रमुख स्थान है।

अठारहवीं शताब्दी काल : 18 वीं शताब्दी में काशी में गुरुओं द्वारा विद्यार्थियों को निशुल्क शिक्षा दी जाती थी। इसी क्रम में 1869 में दयाननद सरस्वती वाराणसी आये और उन्होंने पुराणपंथी हिन्दू आचार्यों से कई विषयों में शास्त्रार्थ किया। तत्पश्चात 1898 में डॉक्टर भगवान दास ने ऐनी बेसेंट के साथ मिलकर बनारस में सेन्ट्रल स्कूल की नीव डाली।

स्वतंत्रता आंदोलन काल : इस कालखंड में काशी में सबसे पहली घटना 1905 में हुयी, जब गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में यहाँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में लाला लाजपत राय और महामना मदन मोहन मालवीय भी शामिल थे। तब पुरे भारतवर्ष के साथ साथ काशी में भी अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा था। इसी क्रम में काशी के युवा बंगाली छात्रों ने एक क्लब शुरू किया।! वर्ष 1909 में यहाँ उदय प्रताप कॉलेज की स्थापना हुयी इसके बाद 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने यहाँ काशी नरेश तथा दरभंगा नरेश के सहयोग से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।

वर्ष 1921 में स्वतंत्रता के लिए गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की जिसमे मदन मोहन मालवीय सहित शिवप्रसाद गुप्त एवं डॉक्टर भगवान दास भी शामिल हुए। इसके बाद वर्ष 1930 के नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान भी काशी सक्रीय रही। वर्ष 1932 में अंग्रेजों द्वारा गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया उसके बाद यहाँ जान आक्रोश बहुत बढ़ गया और तत्कालीन प्रशासन द्वारा कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। वर्ष 1942 में एक बार फिर गाँधी जी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुयी और इसमें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया तथा कई कार्यालयों पर तिरंगा फहरा दिया। 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद यहाँ के तत्कालीन रामनगर रियासत का विलय हुआ और वाराणसी जिला वर्तमान रूप में आया।

हम उम्मीद करते हैं, की हमारे द्वारा पेश किया गया ये संकलन आप सभी को बहुत पसंद आएगा ! यदि आप हमे कोई सुझाव देना चाहते हैं अथवा हमसे कोई प्रश्न पूछना चाहते हैं तो कमेंट बॉक्स के माध्यम से दे अथवा पूछ सकते हैं ! धन्यवाद् !!

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